राजपुरोहित को सिंह की उपाधि और जागीरदारी Rajpurohit samaj

आर्यों द्वारा स्थापित वर्ण व्यवस्था के आधार पर सम्पूर्ण हिन्दू को चार वर्गों में बाटा था - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य एवं शुद्र। राजपुरोहित समाज ब्राह्मण वर्ग का एक ही अभिन्न श्रेष्ठ अंग रहा है। ब्राह्मणों में से श्रेष्ठ विद्या धारक को पुजारी पुरोहित अथवा राजगुरु बनाया जाता था | पारम्परिक तोर पर राजपुरोहित राजा के गुरु के साथ ही प्रमुख मंत्री अथवा सलाहकार का दायित्व भी निभाता था। राजपुरोहित राजाओ को वेदों के उपनिषदों धनुविद्या, शिक्षा एवं युद्ध कला की जानकारी देते थे | कालांतर में राजपुरोहितो ने राजाओ को युद्ध में कन्धा मिलाकर साथ दिया, परिणाम स्वरूप इन्हें नाम के आगे "सिंह" शब्द से संबोधित किया जाने लगा | अपने युद्ध के पराक्रम एवं कोशल के कारण इनको राजाओ की और से डोली (किसी गाव की उपजाऊ जमीन) तथा शासन गाव (किसी गाव विशेष को लगन मुक्त) उपहार स्वरूप भेट किया जाता है |इसी कारण माध्ययुग में राजपुरोहितो को जागीरदार कहलाने लगे |बिर्टिश राज में कहते थे कि कभी सूर्यअस्त नही होता था | वहा से आदेश जारी हुआ तथा भारत के लार्ड को पूछा गया की हिन्दुस्थान में राजपूत ही क्यों "राज" करते है तब यहा के लार्ड ने जबाव भिजवाया की राजपूतो के "राजपूत" राजपुरोहित होते है |तथा राजपुरोहित इतने वफादार होते है की राजपूतो को "राह" से भटकने नही देते है | इस पर पुन: आदेश हुआ की यदि ऐसा ही है तो राजपुरोहित को "जागीरदार" बना दो। शने-शने इनका ध्यान राजविद्या से हटकर कास्तकारी की और बढ़ गया था। राजा से सम्पर्क कम होने लगा |जिसके कारण राजा -महाराजा भोग विलासी बन बेठे एवं विदेशी लोगो ने आकर यह आधिपत्य स्थापित कर लिया |चुकी मध्ययुग की समाप्ति एवं राजाशाही शासन के अंत के बाद भारत वर्ष में लोकतंत्र स्थापित हुआ और जागीरे सिमट कर गई |जिसके कारण जागीदार कहलाने वाले राजपुरोहितों का ध्यान व्यापार की और गया तथा दक्षिणी पूर्वी भारत सहित देश में काफी भागों में व्यापार स्थापित किया। कइयों ने सरकारी अथवा निजी नौकरी की राह चुनी।


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