महाराणा प्रताप का नाम इतिहास में अमर है। बादशाह अकबर ने उनको पराजित करने और अपनी अधीनता मनवाने के लिए तीस वर्षों तक सतत प्रयत्न किया, परंतु सफल नहीं हो सका। अकबर की विशाल सेना का सामना महाराणा ने अपनी सीमित सेना से किया। जंगलों में भटके। भीलों की सहायता ली। राजसी ठाट-बाट को त्यागकर जीवन भर कष्ट सहे, परंतु अधीनता स्वीकार नहीं की।
महाराणा प्रताप का अनुज था शक्ति सिंह। वही रूप, वही तेज, वही स्वाभिमान, दोनों भाई एक समान। एक दिन दोनों भाई शिकार खेलने गए। अलग-अलग निकले थे। जंगल तो जंगल ठहरा। कोई जाना चाहे उत्तर, तो पहुंच जाए दक्षिण। प्रताप ने एक जंगली सूअर का पीछा किया। उसने प्रताप को बहुत घुमाया। कहां-कहां ले आया। प्रताप ने तीर चलाया। सूअर के पेट में जा समाया। तत्क्षण एक और तीर सूअर की पूंछ को छूता हुआ आया। सूअर घबराया और चकराया। वह कटा वृक्ष सा धरती पर गिर पड़ा। तभी शक्तिसिंह का घोड़ा वहां जा अड़ा।
महाराणा बोले, अरे शक्ति! तुम? हां भाई सा मैं। यह तीर मेरा है शक्ति सिंह आगे आकर बोले।
क्षत्रिय का निशाना अचूक होता है। फिर तुम्हारा निशाना चूक कैसे गया? राणा प्रताप ने कहा।
जी भाई सा। मेरे क्षत्रिय होने में कोई संदेह है क्या? शक्ति सिंह की वाणी में तल्खी दिखाई पड़ी।
क्या सबूत की आवश्यकता है? सूअर आगे निकल चुका और तुम्हारा निशाना पूंछ के पास लगा। बड़े भाई की सहज भाव से कही गई बात शक्ति सिंह को बुरी तरह अखर गई। क्रोध से नेत्र लाल हो गए। स्वर कठोर हो गया, यह बात है तो आओ निर्णय कर लें कि निशाना किसका अचूक है? कहते-कहते शक्ति सिंह ने अपना भाला उठाया। राणा प्रताप ने भी भाला उठाते हुए कहा, बड़े भाई का सामना करेगा? क्षत्रिय को जो भी ललकारेगा, उसको जवाब दिया जाएगा। फिर वह बड़ा भाई ही क्यों न हो? शक्ति सिंह ने भाला हवा में लहराया।
प्रताप भी चुप कैसे रहते? क्षत्रिय, फिर अग्रज और राजा भी। अपमान सहना राजपूत के लिए अधर्म है। दोनों के भाले हवा में लहराए। चमचमाती नोंक, मानो एक-दूसरे के रक्त की प्यासी हो गईं। दोनों वीर पल भर में परस्पर वार करके एक-दूसरे के प्राण ले ही लेते, तभी एक गंभीर स्वर ने दोनों को रोक दिया, ठहरो। यह अनर्थ मत करो। क्षण भर को रुककर दोनों ने भद्र पुरुष की ओर देखा। वे और कोई नहीं, मेवाड़ के राजपुरोहित थे। वे फिर गरजे, शर्म नहीं आती तुम्हें? देश पर विधर्मी, विदेशी आक्रमण हो रहे हैं। देश यवनों के अधीन होता जा रहा है और मेवाड़ के वीर राजकुमार मूर्खतावश आपस में युद्ध कर रहे हैं। वृद्ध राजपुरोहित की बात दोनों ने सुनी, परंतु समझी नहीं। भाले छोड़कर तलवारें निकाल लीं। हवा में तलवारें लहराने लगीं। राजपुरोहित पुन: चिल्लाए, वीरता के साथ बुद्धि भी उपयोग करनी चाहिए। यह आपस में लड़ने का समय नहीं है। मिलकर देश के शत्रुओं से लड़ो। तब तक दोनों भाई भिड़ चुके थे। वे आज निर्णय तक पहुंच जाना चाहते थे। राजपुरोहित को देश की चिंता थी। दोनों क्षत्रियों को अपने निशाने को अचूक प्रमाणित करने की चिंता थी। अत: पुरोहित की बात सुनकर भी अनसुनी कर रहे थे। राजपुरोहित अपने जीवन की चिंता किए बिना दोनों के मध्य जा खड़े हुए। एक-दूसरे पर किए गए वार पुरोहितजी को लगे। वे खून से लथपथ वहीं गिर पड़े। तलवारें रुक गईं। गरदनें झुक गईं। राजपुरोहित के तन पर दोनों के वार लग चुके थे। दोनों कंधे कट चुके थे। सिर सलामत था। दोनों ने तलवारें म्यान में रख लीं। पुरोहित जी से क्षमा-याचना करने लगे। राणा बोले, काका आप बीच में क्यों आए? आप व्यर्थ ही घायल हो गए।
बेटा प्रताप! बेटा शक्ति सिंह! इससे अधिक मैं कर ही क्या सकता था? मैंने बार-बार चेताया, परंतु तुम दोनों की समझ में न आया। देश पर शत्रुओं के आक्रमण हो रहे हैं। जिन्हें देशरक्षा के लिए लड़ना चाहिए, वे आपस में लड़ रहे थे। काका! लेकिन आप अपने जीवन की रक्षा तो करते? शक्तिसिंह बोले। राजपुरोहित ने कराहते स्वर में कहा, यदि मैं बीच में न आता तो तुम दोनों में से किसी एक के प्राण चले जाते। दोनों के भी प्राण जा सकते थे। उनका स्वर मंद पड़ चुका था। राणा प्रताप ने कहा, काका! अब आपके प्राण बचने आवश्यक हैं। शक्ति सिंह उठाओ उधर से काका को, इन्हें यहां से ले चलें। राजचिकित्सक से उनकी चिकित्सा तुरंत करानी है।
राजपुरोहित ने कराहते हुए कहा, अब मेरे प्राण बचाने का प्रयास व्यर्थ है। दोनों कंधे कट चुके हैं। अब तो देशरक्षा के लिए अपनी तलवारें उठाओ। मेरा रक्त बह रहा है। राजमहल तक जाते-जाते बहुत रक्त बह चुका होगा।
राजपुरोहित ने लंबी आह भरी, हे राम राजपुत्रों को सुबुद्धि देना। मेरे प्राण तो जाने वाले ही हैं। इनमें देशप्रेम की ज्योति कभी न बुझे। कहते-कहते उन्होंने हिचकी ली और प्राण पखेरू उड़ गए। दोनों भाई एक-दूसरे को दोषी मानते हुए खड़े रहे। फिर राणाप्रताप बोले, शक्ति यह काका का बलिदान तुम्हारी नादानी के कारण हुआ है। मैं राजा होने के नाते आज्ञा देता हूं कि तुम इसी समय राज्य से बाहर निकल जाओ। दु:खी तो शक्ति सिंह भी था। वह राणाप्रताप को दोषी मान रहा था। राजा के नाते दी गई आज्ञा का पालन करते हुए वह तुरंत वहां से चला गया और अकबर से जा मिला। उसने फिर से वही गलती कर दी, जिसे रोकने के लिए राजपुरोहित का बलिदान हुआ था।