बाबा रामदेव जी का जीवन परिचय

जन्म भाद्रपद शुक्ल द्वितीया
वि.स. 1409
जन्म स्थान रुणिचा
मृत्यु वि.स. 1442
मृत्यु स्थान रामदेवरा
समाधी रामदेवरा
उत्तराधिकारी अजमल जी
जीवन संगी नैतलदे
राज घराना तोमर वंशीय राजपूत
पिता अजमल जी
माता मैणादे
धर्म हिन्द

रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं।
15वी. शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट
खसोट, छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के
कारण स्थितियाँ बड़ी अराजक बनी हुई
थीं। ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के
पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा
नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और
रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर भादो
शुक्ल पक्ष दूज के दिन वि•स• 1409 को बाबा
रामदेव पीर अवतरित हुए (द्वारकानाथ ने
राजा अजमल जी के घर अवतार लिया,
जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, वैर-द्वेष,
छुआछूत का विरोध कर अछूतोद्धार का सफल
आन्दोलन चलाया।

परिचय
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव
ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य
कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना
सम्भव नही था। सभी प्रकार के भेद-भाव को
मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित
करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव
जहाँ हिन्दुओ के देव है तो मुस्लिम भाईयों के
लिए रामसा पीर। मुस्लिम भक्त बाबा को
रामसा पीर कह कर पुकारते हैं। वैसे भी
राजस्थान के जनमानस में पॉँच पीरों की
प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का
विशेष स्थान है।
पाबू हडू रामदे ए माँगाळिया मेहा।
पांचू पीर पधारजौ ए गोगाजी
जेहा।।
बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर
सिर्फ़ दलितों का पक्ष ही नही लिया वरन
उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की।
डाली बाई नामक एक दलित कन्या का
उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर
पालन-पोषण भी किया। यही कारण है आज
बाबा के भक्तो में एक बहुत बड़ी संख्या दलित
भक्तों की है। बाबा रामदेव पोकरण के
शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर
नही अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों,
असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों
की सेवा भी की। यही नही उन्होंने पोकरण
की जनता को भैरव राक्षक के आतंक से भी
मुक्त कराया। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता
नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ "मारवाड़ रा परगना
री विगत" में इस घटना का जिक्र करते हुए
लिखा है- भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से
सुना कर दिया था लेकिन बाबा रामदेव के
अदभूत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने
उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद
में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर
चला गया। बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल
के दौरान और समाधि लेने के बाद कई चमत्कार
दिखाए जिन्हें लोक भाषा में परचा देना
कहते है। इतिहास व लोक कथाओं में बाबा
द्वारा दिए ढेर सारे परचों का जिक्र है।
जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने
अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति
और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में
बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को
परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए। बाबा के
घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे तब उन्होंने
बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन
(सीपियाँ) मक्का ही छोड़ आए है और उनका
प्रण है कि वे खाना उन सीपियों में खाते है
तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि
उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को
बिना भोजन कराये नही जाने देते और इसके
साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार
दिखाया जो सीपी जिस पीर कि थी
वो उसके सम्मुख रखी मिली।
इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित
हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर
स्वीकार किया। आख़िर जन-जन की सेवा के
साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा
रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स .
1442 को जीवित समाधी ले ली। श्री
बाबा रामदेव जी की समाधी संवत् 1442
को रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर
सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र
पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का हार्दिक तन मन
व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया। रामदेव जी
ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने
अन्तिम उपदेश देते हुए कहा 'प्रति माह की
शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा पाठ, भजन कीर्तन
करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण
करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में
तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में
मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी
पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव
अपने भक्तों के साथ रहूँगा। इस प्रकार श्री
रामदेव जी महाराज ने समाधि ली।' आज
भी बाबा रामदेव के भक्त दूर- दूर से रुणिचा
उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है। वे
अपने भक्तों के दु:ख दूर करते हैं, मुराद पूरी करते
हैं। हर साल लगने मेले में तो लाखों की तादात
में जुटी उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता
व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का
आकलन आसानी से किया जा सकता है।

जन्म
राजा अजमल जी द्वारकानाथ के परमभक्त
होते हुए भी उनको दु:ख था कि इस तंवर कुल
की रोशनी के लिये कोई पुत्र नहीं था और वे
एक बांझपन थे। दूसरा दु:ख था कि उनके ही
राजरू में पड़ने वाले पोकरण से ३ मील उत्तर
दिशा में भैरव राक्षस ने परेशान कर रखा था।
इस कारण राजा रानी हमेशा उदास ही रहते
थे। श्री रामदेव जी का जन्म bhadra चैत सुदी
पंचम को विक्रम संवत् 1409 को सोमवार के
दिन हुआ जिसका प्रमाण श्री रामदेव जी के
श्रीमुख से कहे गये प्रमाणों में है जिसमें लिखा
है सम्वत चतुर्दश साल नवम चैत सुदी पंचम आप
श्री मुख गायै भणे राजा रामदेव चैत सुदी पंचम
को अजमल के घर मैं आयों जो कि तुवंर वंश की
बही भाट पर राजा अजमल द्वारा खुद अपने
हाथो से लिखवाया गया था जो कि
प्रमाणित है और गोकुलदास द्वारा कृत श्री
रामदेव चौबीस प्रमाण में भी प्रमाणित है
(अखे प्रमाण श्री रामदेव जी) अमन घटोडा
सन्तान ही माता-पिता के जीवन का सुख
है। राजा अजमल जी पुत्र प्राप्ति के लिये
दान पुण्य करते, साधू सन्तों को भोजन कराते,
यज्ञ कराते, नित्य ही द्वारकानाथ की
पूजा करते थे। इस प्रकार राजा अजमल जी भैरव
राक्षस को मारने का उपाय सोचते हुए
द्वारका जी पहुंचे। जहां अजमल जी को
भगवान के साक्षात दर्शन हुए, राजा के आखों
में आंसू देखकर भगवान में अपने पिताम्बर से आंसू
पोछकर कहा, हे भक्तराज रो मत मैं तुम्हारा
सारा दु:ख जानता हूँ। मैं तेरी भक्ती देखकर
बहुत प्रसन्न हूँ, माँगो क्या चाहिये तुम्हें मैं
तेरी हर इच्छायें पूर्ण करूँगा।
भगवान की असीम कृपा से प्रसन्न होकर बोले
हे प्रभु अगर आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हैं तो मुझे
आपके समान पुत्र चाहिये याने आपको मेरे घर
पुत्र बनकर आना पड़ेगा और राक्षस को मारकर
धर्म की स्थापना करनी पड़ेगी। तब भगवान
द्वारकानाथ ने कहा- हे भक्त! जाओ मैं तुम्हे
वचन देता हूँ कि पहले तेरे पुत्र विरमदेव होगा
तब अजमल जी बोले हे भगवान एक पुत्र का
क्या छोटा और क्या बड़ा तो भगवान ने
कहा- दूसरा मैं स्वयं आपके घर आउंगा। अजमल
जी बोले हे प्रभू आप मेरे घर आओगे तो हमें क्या
मालूम पड़ेगा कि भगवान मेरे धर पधारे हैं, तो
द्वारकानाथ ने कहा कि जिस रात मैं घर पर
आउंगा उस रात आपके राज्य के जितने भी
मंदिर है उसमें अपने आप घंटियां बजने लग
जायेगी, महल में जो भी पानी होगा
(रसोईघर में) वह दूध बन जाएगा तथा मुख्य
द्वार से जन्म स्थान तक कुमकुम के पैर नजर आयेंगे
वह मेरी आकाशवाणी भी सुनाई देगी और में
अवतार के नाम से प्रसिद्ध हो जाउँगा।
श्री रामदेव जी का जन्म संवत् १४०९ में भाद्र
मास की दूज को राजा अजमल जी के घर हुआ।
उस समय सभी मंदिरों में घंटियां बजने लगीं,
तेज प्रकाश से सारा नगर जगमगाने लगा। महल
में जितना भी पानी था वह दूध में बदल गया,
महल के मुख्य द्वार से लेकर पालने तक कुम कुम के
पैरों के पदचिन्ह बन गए, महल के मंदिर में रखा
संख स्वत: बज उठा। उसी समय राजा अजमल
जी को भगवान द्वारकानाथ के दिये हुए वचन
याद आये और एक बार पुन: द्वारकानाथ की
जय बोली। इस प्रकार ने द्वारकानाथ ने
राजा अजमल जी के घर अवतार लिया। बाल
लीला में माता को परचा
भगवान नें जन्म लेकर अपनी बाल लीला शुरू
की। एक दिन भगवान रामदेव व विरमदेव
अपनी माता की गोद में खेल रहे थे, माता
मैणादे उन दोनों बालकों का रूप निहार रहीं
थीं। प्रात:काल का मनोहरी दृश्य और भी
सुन्दरता बढ़ा रहा था। उधर दासी गाय का
दूध निकाल कर लायी तथा माता मैणादे के
हाथों में बर्तन देते हुए इन्हीं बालकों के
क्रीड़ा क्रिया में रम गई। माता बालकों
को दूध पिलाने के लिये दूध को चूल्हे पर चढ़ाने
के लिये जाती है। माता ज्यों ही दूध को
बर्तन में डालकर चूल्हे पर चढ़ाती है। उधर रामदेव
जी अपनी माता को चमत्कार दिखाने के
लिये विरमदेव जी के गाल पर चुमटी भरते हैं
इससे विरमदेव को क्रोध आ जाता है तथा
विरमदेव बदले की भावना से रामदेव जी को
धक्का मार देते हैं। जिससे रामदेव जी गिर
जाते हैं और रोने लगते हैं। रामदेव जी के रोने
की आवाज सुनकर माता मैणादे दूध को चुल्हे
पर ही छोड़कर आती है और रामदेव जी को
गोद में लेकर बैठ जाती है। उधर दूध गर्म होन के
कारण गिरने लगता है, माता मैणादे ज्यांही
दूध गिरता देखती है वह रामदेवजी को गोदी
से नीचे उतारना चाहती है उतने में ही
रामदेवजी अपना हाथ दूध की ओर करके अपनी
देव शक्ति से उस बर्तन को चूल्हे से नीचे धर देते
हैं। यह चमत्कार देखकर माता मैणादे व वहीं बैठे
अजमल जी व दासी सभी द्वारकानाथ की
जय जयकार करते हैं।
बाल लीला में कपड़े के
घोड़े को आकाश में
उड़ाना
एक बार बालक रामदेव ने खिलोने वाले घोड़े
की जिद करने पर राजा अजमल उसे खिलोने
वाले के पास् लेकर गये एवं खिलोने बनाने को
कहा। राजा अजमल ने चन्दन और मखमली कपडे
का घोड़ा बनाने को कहा। यह सब देखकर
खिलोने वाला लालच में आ ग़या और उसने
बहुत सारा कपडा अपनी पत्नी के लिये रख
लिया और उस में से कुछ ही कपडा काम में
लिया। जब बालक रामदेव घोड़े पर बैठे तो
घोड़ा उन्हें लेकर आकाश में चला ग़या। राजा
खिलोने वाले पर गुस्सा हुए तथा उसे जेल में
डालने के आदेश दे दिये। कुछ समय पश्चात,
बालक रामदेव वापस घोड़े के साथ आये।
खिलोने वाले ने अपनी गलती स्वीकारी
तथा बचने के लिये रामदेव से गुहार की।
बाबा रामदेव ने दया दिखाते हुए उसे माफ़
किया। अभी भी, कपडे वाला घोड़ा बाबा
रामदेव की खास चढ़ावा माना जाता है।
रूणिचा की स्थापना
संवत् १४२५ में रामदेव जी महाराज ने पोकरण से
१२ कि०मी० उत्तर दिशा में एक गांव की
स्थापना की जिसका नाम रूणिचा रखा।
लोग आकर रूणिचा में बसने लगे। रूणिचा गांव
बड़ा सुन्दर और रमणीय बन गया। भगवान
रामदेव जी अतिथियों की सेवा में ही
अपना धर्म समझते थे। अंधे, लूले-लंगड़े, कोढ़ी व
दुखियों को हमेशा हृदय से लगाकर रखते थे।
बोहिता को परचा व
परचा बावड़ी
एक समय रामदेव जी ने दरबार बैठाया और
निजीया धर्म का झण्डा गाड़कर उँच नीच,
छुआ छूत को जड़ से उखाड़कर फैंकने का संकल्प
किया तब उसी दरबार में एक सेठ
बोहिताराज वहां बैठा दरबार में प्रभू के
गुणगान गाता तब भगवान रामदेव जी अपने
पास बुलाया और हे सेठ तुम प्रदेश जाओ और
माया लेकर आओ। प्रभू के वचन सुनकर
बोहिताराज घबराने लगा तो भगवान
रामदेव जी बोले हे भक्त जब भी तेरे पर संकट
आवे तब मैं तेरे हर संकट में मदद करूंगा। तब सेठ
रूणिचा से रवाना हुए और प्रदेश पहुँचे और प्रभू
की कृपा से बहुत धन कमाया। एक वर्ष में सेठ
हीरो का बहुत बड़ा जौहरी बन गया। कुछ
समय बाद सेठ को अपने बच्चों की याद आयी
और वह अपने गांव रूणिचा आने की तैयारी
करने लगा। सेठजी ने सोचा रूणिचा जाउंगा
तो रामदेवजी पूछेंगे कि मेरे लिये प्रदेश से
क्या लाये तब सेठ जी ने प्रभू के लिये हीरों
का हार खरीदा और नौकरों को आदेश
दिया कि सारे हीरा पन्ना जेवरात सब कुछ
नाव में भर दो, मैं अपने देश जाउंगा और सेठ
सारा सामान लेकर रवाना हुआ। सेठ जी ने
सोचा कि यह हार बड़ा कीमती है भगवान
रामदेव जी इस हार का क्या करेंगे, उसके मन में
लालच आया और विचार करने लगा कि
रूणिचा एक छोटा गांव है वहां रहकर क्या
करूंगा, किसी बड़े शहर में रहुँगा और एक बड़ा
सा महल बनाउंगा। इतने में ही समुद्र में जोर
का तुफान आने लगा, नाव चलाने वाला
बोला सेठ जी तुफान बहुत भयंकर है नाव का
परदा भी फट गया है। अब नाव चल नहीं
सकती नाव तो डूबेगी ही। यह माया आपके
किस काम की हम दोनों मरेंगे।
सेठ बोहिताराज भी धीरज खो बैठा। अनेक
देवी देवताओं को याद करने लगा लेकिन सब
बेकार, किसी भी देवता ने उसकी मदद नहीं
की तब सेठजी को श्री रामदेव जी का वचन
का ध्यान आया और सेठ प्रभू को करूणा भरी
आवाज से पुकारने लगा। हे भगवान मुझसे कोई
गलती हुयी हो जो मुझे माफ कर दीजिये। इस
प्रकार सेठजी दरिया में भगवान श्री रामदेव
जी को पुकार रहे थे। उधर भगवान श्री रामदेव
जी रूणिचा में अपने भाई विरमदेव जी के साथ
बैठे थे और उन्होंने बोहिताराज की पुकार
सुनी। भगवान रामदेव जी ने अपनी भुजा
पसारी और बोहिताराज सेठ की जो नाव
डूब रही थी उसको किनारे ले लिया। यह
काम इतनी शीघ्रता से हुआ कि पास में बैठे
भई वीरमदेव को भी पता तक नहीं पड़ने
दिया। रामदेव जी के हाथ समुद्र के पानी से
भीग गए थे।
बोहिताराज सेठ ने सोचा कि नाव अचानक
किनारे कैसे लग गई। इतने भयंकर तुफान सेठ से
बचकर सेठ के खुशी की सीमा नहीं रही।
मल्लाह भी सोच में पड़ गया कि नाव इतनी
जल्दी तुफान से कैसे निकल गई, ये सब किसी
देवता की कृपा से हुआ है। सेठ बोहिताराज ने
कहा कि जिसकी रक्षा करने वाले भगवान
श्री रामदेव जी है उसका कोई बाल बांका
नहीं कर सकता। तब मल्लाहों ने भी श्री
रामदेव जी को अपना इष्ट देव माना। गांव
पहुंचकर सेठ ने सारी बात गांव वालांे को
बतायी। सेठ दरबार में जाकर श्री रामदेव जी
से मिला और कहने लगा कि मैं माया देखकर
आपको भूल गया था मेरे मन में लालच आ गया
था। मुझे क्षमा करें और आदेश करें कि मैं इस
माया को कहाँ खर्च करूँ। तब श्री रामदेव
जी ने कहा कि तुम रूणिचा में एक बावड़ी
खुदवा दो और उस बावड़ी का पानी मीठा
होगा तथा लोग इसे परचा बावड़ी के नाम से
पुकारेंगे व इसका जल गंगा के समान पवित्र
होगा। इस प्रकार रामदेवरा (रूणिचा) मे आज
भी यह परचा बावड़ी बनी हुयी है।

पांच पीरों से मिलन व
परचा
चमत्कार होने से लोग गांव-गांव से रूणिचा
आने लगे। यह बात मौलवियों और पीरों को
भी पता चली। भगवान श्री रामदेव जी घर
घर जाते और लोगों को उपदेश देते कि उँच-
नीच, जात-पात कुछ नहीं है, हर जाति को
बराबर अधिकार मिलना चाहिये। पीरों ने
श्री रामदेव जी को परखने का विचार
किया कि अपने से बड़े पीर जो मक्का में रहते
हैं उनको खबर दी कि हिन्दुओं में एक महान
पीर पैदा हुए हैं जो मरे हुए प्राणी को
जिन्दा कर देते हैं, अन्धे को आँखे देते हैं,
अतिथियों की सेवा करना ही अपना धर्म
समझते हैं , उनकी परीक्षा ली जाए। यह खबर
जब मक्का पहुँची तो पाँच पीर मक्का से
रवाना हुए। कुछ दिनों में वे पीर रूणिचा की
ओर पहुँचे। पांचों पीरों ने भगवान रामदेव जी
से पूछा कि हे भाई रूणिचा यहां से कितनी
दूर है, तब भगवान रामदेवजी ने कहा कि यह
जो गांव सामने दिखाई दे रहा है वही
रूणिचा है, क्या मैं आपके रूणिचा आने का
कारण पूछ सकता हूँ ? तब उन पाँचों में से एक
पीर बोले हमें यहां रामदेव जी से मिलना है।
तब प्रभु बोले हे पीरजी मैं ही रामदेव हूँ आपके
समाने खड़ा हूँ कहिये मेरे योग्य क्या सेवा है।
श्री रामदेव जी के वचन सुनकर पाँचों पीर प्रभु
के साथ हो लिए। रामदेवजी ने पाँचों पीरों
का बहुत सेवा सत्कार किया। प्रभू पांचों
पीरों को लेकर महल पधारे, वहां पर गद्दी,
तकिया और जाजम बिछाई गई और पीरजी
गद्दी तकियों पर विराजे मगर श्री रामदेव
जी जाजम पर बैठ गए और बोले हे पीरजी आप
हमारे मेहमान हैं, हमारे घर पधारे हैं आप हमारे
यहां भोजन करके ही पधारना। इतना सुनकर
पीरों ने कहा कि हे रामदेव भोजन करने वाले
कटोरे हम मक्का में ही भूलकर आ गए हैं। हम
उसी कटोरे में ही भोजन करते हैं दूसरा बर्तन
वर्जित है। आपको भोजन कराना है तो वो
ही कटोरा जो हम मक्का में भूलकर आये हैं
मंगवा दीजिये तो हम भोजन कर सकते हैं वरना
हम भोजन नहीं करेंगे। तब रामदेव जी ने कहा
कि हे पीर जी अगर ऐसा है तो मैं आपके कटोरे
मंगा देता हूँ। ऐसा कहकर भगवान रामदेव जी ने
अपना हाथ लम्बा किया और एक ही पल में
पाँचों कटोरे पीरों के सामने रख दिये और
कहा पीर जी अब आप इस कटोरे को पहचान
लो और भोजन करो। जब पीरों ने पाँचों
कटोरे मक्का वाले देखे तो पाँचों पीरों को
श्री रामदेव जी महानता पर विश्वास हुआ
और उनके विचारों और आचरण से बहुत
प्रभावित हुए और कहने लगे हम पीर हैं मगर आप
महान पीर हैं। आज से आपको दुनिया
रामापीर के नाम से जानेगी। इस तरह से
पीरों ने भोजन किया और श्री रामदेवजी
को पीर की पदवी मिली और रामसापीर,
रामापीर कहलाए।
विवाह
बाबा रामदेव जी ने संवत् १४२५ में रूणिचा
बसाकर अपने माता पिता की सेवा में जुट गए
इधर रामदेव जी की माता मैणादे एक दिन
अपने पति राजा अजमल जी से कहने लगी कि
अपना राजकुमार बड़ा हो गया है अब इसकी
सगाई कर दीजिये ताकि हम भी पुत्रवधु देख
सकें। जब बाबा रामदेव जी (द्वारकानाथ) ने
जन्म (अवतार) लिया था उस समय रूक्मणी
को वचन देकर आये थे कि मैं तेरे साथ विवाह
रचाउंगा। संवत् १४२६ में अमर कोट के ठाकुर दल
जी सोढ़ की पुत्री नैतलदे के साथ श्री
रामदेव जी का विवाह हुआ।
समाधी
संवत् १४४२ को रामदेव जी ने अपने हाथ से
श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया
तथा सबने पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का
हार्दिक तन मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन
किया। रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर
सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा
प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा
पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना,
रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे
जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान
समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर
पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति
व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के
साथ रहुँगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी
महाराज ने समाधी ली।

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