श्री,राम,108 और 1008 का महत्व
जीवन की नैया को संतुलन में रखने के लिए सर्वश्रेष्ठ उपाय ये सात शब्दों वाला तारक मंत्र है - 'श्री राम, जय राम, जय जय राम।' साधारण से दिखने वाले इस मंत्र में जो शक्ति छिपी हुई है, वह चर्चा का नहीं, अनुभव का विषय है। सब प्रकार के विधि-विधान से मुक्त होना इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इसे कोई भी, कहीं भी, कभी भी कर सकता है। फल बराबर मिलता है। हमारा जीवन सौभाग्य और दुर्भाग्य की अनुभूतियों से भरा हुआ है। कभी हमें सौभाग्य का अनुभव होता है और कभी दुर्भाग्य का। सौभाग्य हमें निद्गिचत रुप से अच्छा लगता है परन्तु दुर्भाग्य से दुखी होना किसी को अच्छा नहीं लगता। सब सौभाग्य की ही अपेक्षा रखते हैं। दुर्भाग्य दूर करने के लिए व्यक्ति यथाद्गाक्ति पुरुषार्थ करता है। कर्म करने के ढंग प्रत्येक व्यक्ति के अलग-अलग हो सकते हैं। कुछ लोग प्रभु का सहारा लेते हैं - उसकी पूजा-अर्चना कर उसकी कृपा पाने के लिए प्रयत्नद्गाील रहते हैं। कुछ लोग मादक द्रव्यों का प्रयोग करने लगते हैं। कुछ लोग अपने-अपने क्रिया-कलापों से मुक्ति पा जाते हैं और अन्य दुःखमय जीवन व्यतीत करते हुए मानसिक संत्रास के द्गिाकार हो जाते हैं। यदि देखा जाए तो यह सब मूलतः इस बात पर अधिक निर्भर करता है कि हम उसे अनुभव करते हैं अथवा नहीं। दुर्भाग्य की मात्रा और दुर्भाग्य होने की समयावधि इस बात पर निर्भर करती है कि दुःख का अनुभव हम कितनी गहनता से अथवा गहराई से करते हैं। दुर्भाग्य एक व्यक्ति के लिए पहाड़ के समान होता है। परंतु किसी अन्य के लिए वही एक साधारण सी बात भी हो सकती है। दुख अथवा दुर्भाग्य वास्तव में सौभाग्य के कम हो जाने का नाम है। इसी प्रकार दुःख का कम हो जाना सुख अथवा सौभाग्य का प्रतीक है। दोनों का जीवन में अनुभव आवद्गयक रुप से होता रहता है। यह नाव के दो चप्पुओं के समान है। यदि एक का भी संतुलन बिगड़ा तो समझिए कि जीवन की नाव डगमगा जाएगी। हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य आज यही है कि हम राम नाम का सहारा नहीं ले रहे हैं। हमने जितना भी अधिक राम नाम को खोया है, हमारे जीवन में उतनी ही विषमता बढ़ी है, उतना ही अधिक संत्रास हमें मिला है। एक सार्थक नाम के रुप में हमारे ऋषि-मुनियों ने राम नाम को पहचाना है। उन्होंने इस पूज्यनीय नाम की परख की और नामों के आगे लगाने का चलन प्रारंभ किया। प्रत्येक हिन्दू परिवार में देखा जा सकता है कि बच्चे के जन्म में राम के नाम का सोहर होता है। वैवाहिक आदि सुअवसरों पर राम के गीत गाये जाते हैं। यहॉ तक कि जीव के अंतिम समय में भी राम के नाम का घोष किया जाता है। राम सब में हैं। राम में ही द्गिाव और द्गिाव में ही राम विद्यमान हैं। राम नाम को द्गिाव का महामंत्र माना गया है।
राम सर्वमय व सर्वमुक्त हैं। राम सबकी चेतना का सजीव नाम हैं। कुखयात डाकू रत्नाकर राम नाम के वद्गाीभूत होकर प्रभावित हुआ। अंततः महर्षि वाल्मिकि नाम से विखयात हुआ। राम नाम की चैतन्य धारा से समय की प्रत्येक आवद्गयकताऍ स्वयं ही पूरी हो जाती हैं। यह नाम सर्वसमर्थ है। जो चेतन को जड़ करई, जड़ई करई चैतन्य। अस समर्थ रघुनायकहिं, भजत जीव ते धन्य॥ प्रत्येक राम भक्त के लिए राम उसके हृदय में वास कर सुख सौभाग्य और सान्त्वना देने वाले हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिख दिया है कि प्रभु के जितने भी नाम प्रचलित हैं, उन सब में सर्वाधिक श्री फल देने वाला नाम राम का ही है। इससे एक बाधिक, पशु-पक्षी आदि तक तर जाते हैं। भद्राचलम् के भक्त रामदास, महाराष्ट्र के समर्थ गुरु रामदास, कान्हागढ़ के संत रामदास, रामकृष्ण परमहंस, गांधी जी आदि हनुमान जी की ही परम्परा पर चले। सब संत जन श्री राम को सदैव अपने हृदय में रखकर उसी की प्रेरणा से महान और सौभाग्यशाली बने। दक्षिण भारत के संत त्यागराज ने वर्षों राम नाम का जप किया। अंततः उन्हें राम का साक्षात्कार हुआ। सारा जीवन कृष्ण के प्रेम में लीन मीरा बाई ने अंततः यही गाया - 'पायो जी मैंने राम रतन धन पायो', उन्होंने कृष्ण रतन धन क्यों नहीं कहा? श्री राम का वर्णन यहां इसलिए किया जा रहा है क्योंकि अन्य देवी-देवताओं की तुलना में वह सबको सरलता से प्राप्त हो जाते हैं। यह नाम सबसे सरल, सुरक्षित तथा निद्गिचत रुप से लक्ष्य की प्राप्ति करवाने वाला है। मंत्र जप के लिए आयु, स्थान, परिस्थिति, काल, जात-पात आदि किसी भी बाहरी आडम्बर का बंधन नहीं है। किसी क्षण, किसी भी स्थान पर इसे जप सकते हैं। प्रायः जिज्ञासु प्रद्गन करते हैं कि क्या महिलाएं जब पॉच दिन अपवित्र हों, तब मंत्र जप न करें? राम नाम जप में ऐसा कोई बंधन नहीं है। वैसे भी यह मान्यता है कि स्त्रियॉ पूजा से वंचित क्यों रहें। प्रभु के लिए सब समान हैं। जब मन सहज रुप में लगे, तब ही मंत्र जप कर लें। तारक मंत्र 'श्री' से प्रारंभ होता है। 'श्री' को सीता अथवा शक्ति का प्रतीक माना गया है। राम शब्द 'रा' अर्थात् रकार और 'म' मकार से मिल कर बना है। 'रा' अग्नि स्वरुप है।
यह हमारे दुष्कर्मों का दाह करता है। 'म' जल तत्व का द्योतक है। जल आत्मा की जीवात्मा पर विजय का कारक है। इस प्रकार पूरे तारक मंत्र - 'श्री राम, जय राम, जय जय राम' का सार निकलता है - शक्ति से परमात्मा पर विजय। 'क्क' बीज मंत्र को हिन्दू धर्म में परमात्मा का प्रतीक माना गया है। इसलिए मंत्र से पूर्व 'क्क' श्री राम, जय राम, जय जय राम' रुप में जपा जाता है। योग शास्त्र में देखा जाए तो 'रा' वर्ण को सौर ऊर्जा का कारक माना गया है। यह हमारी रीढ़-रज्जू के दायीं ओर स्थित पिंगला नाड़ी में स्थित है। यहां से यह शरीर में पौरुष ऊर्जा का संचार करता है। 'मा' वर्ण को चन्द्र ऊर्जा कारक अर्थात स्त्री लिंग माना गया है। यह रीढ़-रज्जू के बांयीं ओर स्थित इड़ा नाड़ी में प्रवाहित होता है। इसीलिए कहा गया है कि श्वास और निद्गवास में निरंतर रकार 'रा' और मकार 'म' का उच्चारण करते रहने से दोनों नाड़ियों में प्रवाहित ऊर्जा में सामंजस्य बना रहता है। अध्यात्म में यह माना गया है कि जब व्यक्ति 'रा' शब्द का उच्चारण करता है तो इसके साथ-साथ उसके आंतरिक पाप बाहर फेंक दिये जाते हैं। इससे अंतःकरण निष्पाप हो जाता है। अभ्यास में भी 'रा' को इस प्रकार उच्चारित करना चाहिए जिससे पूरे का पूरा स्वास बाहर निकल जाए। इस समय आपको 'तानदेने' से रिक्तता अनुभव होने लगेगी। इस स्थिति में पेट बिल्कुल पिचक जाता है। एक बार पुनः स्पष्ट कर लें कि 'रा' का केवल उच्चारण मात्र ही नहीं करना है, इसे लंबा खीचना है। रा....ह्ण.... ह्ण....ह्ण। अब 'म' का उच्चारण करें। 'म' शब्द बोलते ही दोनों होंठ स्वतः एक ताले की मानिन्द बंद हो जाते हैं और इस प्रकार बाह्य विकार यदि पुनः अंतःकरण में प्रवेद्गा करें तो बंद होंठ उन्हें रोक देते हैं। राम नाम अथवा मंत्र रटते रहने से मन-मस्तिष्क को पवित्रता प्राप्त होती है और व्यक्ति अपने पवित्र मन में परब्रह्म-परमेद्गवर के अस्तित्व का अनुभव करने लगता है। ये कितनी सरल विधि है।
शान्ति पाने का यह कितना सरल उपक्रम है। फिर भी न जाने क्यों व्यक्ति इधर-उधर भटकता फिरता है? व्यक्ति के शरीर में 72,000 नाड़ी मानी गयी हैं। इनमें से 108 नाड़ियों का अस्तित्व हृदय में माना गया है। इसलिए मंत्र जप संखया 108 मानी गयी है। अर्थात एक माला। 108 जप संखया के अनेक महत्व हैं। यहॉ केवल इतना समझना है कि संखया से जप करना महत्वपूर्ण है। स्ुार, ताल तथा नाद और प्राणायाम से जप को और भी अधिक शक्तिद्गााली बनाया जाता है। मंत्र जाप में तीन पादों की प्रधानता है। पहले आता है मौखिक जाप। जैसे ही हमारा मन मंत्र के सार को समझने लगता है हम जाप की द्वितीय स्थिति अर्थात् उपांद्गाु में पहुॅच जाते हैं। इस स्थिति में मंत्र की फुसफुसाहट भी नहीं सुनी जा सकती। तृतीय स्थिति में मंत्र जप केवल मानसिक रह जाता है। यहॉ मंत्रोच्चार केवल मानसिक रुप से चलता है। इसमें दृष्टि भी खुली रहती है और मानसिक संलग्नता के साथ-साथ व्यक्ति अपने दैनिक कर्मों में भी लीन रहता है। यह अवस्था मंत्र के एक करोड़ जाप कर लेने मात्र से आ जाती है। यहीं से शाम्भवी मुद्रा सिद्ध हो जाती है और साधक की परमहंस की अवस्था पहुंच जाती है।
एक लाख तारक मंत्र जप लेने से व्यक्ति में अनोखी अनुभूति होने लगती है। यहॉ से व्यक्ति के लिए दुर्भाग्य नाम की किसी भी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रह जाता। यदि ऐसा व्यक्ति मंत्र जप के बाद किसी बीमार व्यक्ति की भृकुटी में सुमेरु छुआ दे, तो उसे आद्गाातीत लाभ होने लगेगा। परन्तु इस प्रकार के प्रयोग के बाद माला को गंगा जल से शुद्ध करके फिर प्रयोग करना चाहिए। यहां माला के बारे में भी यह स्पष्टीकरण जरूरी है क्योंकि अज्ञानतावद्गा कुछ लोग इसका उचित प्रयोग नहीं कर पाते। मंत्र जप माला में 108 मनके होते हैं। माला कार्यानुसार तुलसी, वैजयन्ती, रुद्राक्ष, कमल गट्टे, स्फटिक, पुत्रजीवा, अकीक, रत्नादि किसी की भी हो सकती है। अलग-अलग कार्य सिद्धियों के अनुसार ही इन मालाओं का चयन होता है। तारक मंत्र के लिए सर्वश्रेष्ठ माला तुलसी की मानी जाती है। माला के 108 मनके हमारे हृदय में स्थित 108 नाड़ियों के प्रतीक स्वरुप हैं। माला का 109 वॉ मनका सुमेरु कहलाता है। व्यक्ति को एक बार में 108 जाप पूरे करने चाहिए। इसके बाद सुमेरु से माला पलटकर पुनः जाप आरम्भ करना चाहिए। किसी भी स्थिति में माला का सुमेरु लांघना नहीं चाहिए। माला को अंगूठे और अनामिका से दबाकर रखना चाहिए और मध्यमा उॅगली से एक मंत्र जपकर एक दाना हथेली के अन्दर खींच लेना चाहिए। तर्जनी उॅगली से माला का छूना वर्जित माना गया है। माला के दाने कभी-कभी 54 भी होते हैं। ऐसे में माला फेरकर सुमेरु से पुनः लौटकर एक बार फिर एक माला अर्थात 54 जप पूरे कर लेना चाहिए।
जिन्हें अधिक लगन है वे 1008 नाम जप एक बैठक में करें। मानसिक रुप से पवित्र होने के बाद किसी भी सरल मुद्रा में बैठें जिससे कि वक्ष, गर्दन और सिर एक सीधी रेखा में रहे। मंत्र जप पूरे करने के बाद अन्त में माला का सुमेरु माथे से छुआकर माला को किसी पवित्र स्थान में रख देना चाहिए। मंत्र जप में कर-माला का प्रयोग भी किया जाता है। जिनके पास कोई माला नहीं है वह कर-माला से विधि पूर्वक जप करें। कर-माला से मंत्र जप करने से भी माला के बराबर जप का फल मिलता है। इससे श्रेष्ठ जप यह माना गया है कि श्वास-निद्गवास में निरन्तर राम नाम निकलता रहे। जहॉ तक सम्भव हो हर घड़ी, हर क्षण राम का नाम अन्तर्मन में रटा जाता रहे जिससे कि रोम-रोम में राम नाम समा जाए। ठीक ऐसे ही जैसे कि ''मारुति के रोम रोम में बसा राम नाम है।'' जप के अतिरिक्त राम मंत्र को लिखकर भी आत्मद्गाुद्धि की जा सकती है। एक लाख मंत्र एक निद्गिचत अवधि में लिखकर यदि पूरे कर लिए जाएं तो अन्तर्मन उज्जवल बनता है। व्यक्ति यदि चार करोड़ मंत्र मात्र राम नाम लिखकर अथवा जपकर पूर्णकर लें तो उसके ज्ञान-चक्षु खुल जाते हैं। वह निद्गिचत ही भवसागर को पार कर जाता है। परन्तु यह कार्य सरल नहीं है क्योंकि मन बहुत चंचल है एक जगह स्थिर ही नहीं होता। यदि प्रत्येक सॉस में राम नाम लिया जाये तो 4 करोड़ की संखया लगभग 5 वर्ष में पूरी की जा सकती है। यह तभी संभव है जब प्रत्येक सॉस में अन्य कोई विचार न लाए। स्वयं अनुमान करें कि यह कितना कठिन है। इसीलिए पुण्यफल एक-दो जन्मों में नहीं मिल पाता। इसके लिए जन्म-जन्मान्तर का समय चाहिए। जितनी कम आयु से नाम का जप प्रारम्भ कर दिया जाए उतना ही अच्छा है क्योंकि एक अवस्था के बाद अभ्यास की कमी के कारण शरीर भी कार्य करने से आनाकानी करने लगता है। आप भी आज से मंत्र जप का सहारा लेकर दुर्भाग्य को दूर भगाएं और राममय हो जाएं - श्री राम, जय राम, जय जय राम ।
108 का महत्व
आपने बड़े बड़े संत महात्माओं और पूज्यनीय व्यक्तित्वों के नाम के पहले 'श्री-श्री १०८ श्री' जैसे विभूषण अवश्य देखे होंगे । क्या आपको पता है यह संख्या १०८ का क्या महत्व है । यदि पता है तो हमें बताया क्यों नहीं ? और यदि नहीं पता है तो अब जान लीजिये :
असल में हिन्दी वर्णमाला के सभी अक्षरों को यदि क्रमानुसार अंक दिये जाएं तो । 'ब्रह्म' शब्द के सभी अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर १०८ बनता है । यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इस संख्या को पवित्र माना गया है ।
'सीताराम' शब्द के अक्षरों से संबंधित अंकों का योग करने पर भी १०८ की संख्या ही मिलती है । इस प्रणाली से किसी शब्द से संबंधित संख्या प्राप्त करने के लिए । वर्णमाला के स्वर और व्यंजनों को अलग अलग अंक दिये जाते हैं ।
ब्रह्म = ब + र + ह + म = 23 + 27 + 33 + 25 = 108
सीताराम = स + ई + त + आ + र + आ + म = 32 + 4 + 16 + 2 + 27 + 2 + 25 = 108